अब्दुल रशीद अगवान
मैं इन दिनों अंतरिक्ष विज्ञान पर कुछ रिसर्च कर रहा हूं। इस दौरान हैरत हुई यह जान कर कि न सभ्यता सांप्रदायिक और नस्लवादी होती है और न ज्ञान-विज्ञान। और यह इसलिए है क्योंकि सभ्यता का चक्र अल्लाह परमेश्वर के हाथ में है जो सभी को प्यार करता है और जो जितनी मेहनत करता है उसको उतना फल भी देता है।
एक मिसाल से हम इस सच्चाई को समझ सकते हैं। एस्ट्रोनोमी/अंतरिक्ष विज्ञान/इल्मे फल्कियात में तक़रीबन पांच हज़ार साल पहले मिस्र और बेबीलोन बहुत आगे हुआ करते थे। बाद में चीन और यूनान ने उनके काम को आगे बढ़ाया। यूनान से यह इल्म हिंद तक पहुंचा। फिर यह बग़दाद होते हुए दोबारा एक तरफ हिंद वापस लौटा तो स्पेन के रास्ते से युरोप भी पहुंचा।
मुस्लिम दुनिया के सुनहरे दौर में उस वक़्त तक जो कुछ भी इल्म मौजूद था उसको जमा करना, अरबी में उसका तरजुमा करना, उस पर महारत हासिल करना और उसे तरक़्क़ी देना एक अहम कारनामा था, चाहे वह यूनान से आया हो या चीन से, फारस से या फिर हिंद से। यह वह दौर था जब युरोप का अंधकाल (darkage) जारी था और हिंद में उसकी शुरुआत होने ही वाली थी। उस वक़्त अल्लाह परमेश्वर ने इल्म की मशाल को जलाए रखने का काम एक नये समुदाय से लिया।
आज के दक्षिणी राजस्थान और उत्तरी गुजरात के इलाक़े में सातवीं सदी में कभी एक गुर्जर राजा की हुकूमत हुआ करती थी। उसी की राजधानी भीनमाल में गणित और खगोल विज्ञान में उस दौर के एक बड़े माहिर ब्रह्मगुप्त पैदा हुए थे जिनकी 628 में लिखी किताब ‘सिद्धांतिका’ को क़रीब सौ साल बाद सिंध के एक सफीर और ज्योतिष के जानकार कनक ने ख़लीफा अबू ज़फर अलमंसूर को तोहफे में दी। ये वही ख़लीफा (714-737) हैं जिन्होंने बग़दाद में बैतुल हिकमा क़ायम किया था जहां से इल्म को एक नई ज़िन्दगी मिली और जिसे बाद में ख़लीफा मामून रशीद ने और आगे बढ़ाया।
ख़लीफ़ा मंसूर ने इस किताब को समझने और तर्जुमा करने के लिए अपने महान वैज्ञानिक मुहम्मद इब्ने इब्राहीम अलफ़ज़ारी को दी। इसके नतीजे में बैतुल हिकमा के माहेरीन ने ब्रह्मगुप्त की खोज के साथ-साथ यूनान और चीन की एस्ट्रोनोमी को समझ कर इस इल्म को एक नई ऊंचाई तक पहुंचाया।
यह याद रहना चाहिये कि चाहे आर्यभट्ट हों, वराहमिहिर हों या ब्रह्मगुप्त जैसे ज्योतिषाचार्य सभी ने यूनान के रास्ते से खगोल विज्ञान और ज्योतिष को सीखा और उसे आगे बढ़ाया। सिंधु नदी के पश्चिमी किनारे पर एक लंबे अर्से तक यूनानियों की हुकूमत ने इसके पूर्वी किनारे पर बसे इलाक़ों तक ज्ञान-विज्ञान की लहर पहुंचाई। चुनांचे, यवनजातक, पाॅलिसा सिद्धांत और रोमसिद्धांतिका जैसी कई मशहूर यूनानी किताबों के संस्कृत में अनुवाद हुए। पहली किताब सिंध के राजा यवनेश्वर रुद्रदमन प्रथम ने 150 ईस्वी में तैयार की जबकि बाक़ी दो किताबों से वराहमिहिर ने खगोल विज्ञान को आगे बढ़ाया। इसे भी याद रखा जाए कि इन किताबों को संस्कृत में ढालने का काम मिस्र के एलेक्जेंडरिया शहर में शुरू हुआ था जो उस वक़्त ज्ञान-विज्ञान में दुनिया का केंद्र था और बाद में इनको बेहतर करने का काम सातवीं सदी तक जारी रहा जब उज्जैन के रूप में एक नया केंद्र उभरा।
भारत उपमहाद्वीप में एस्ट्रोनोमी की दोबारा शुरुआत ग्यारहवीं सदी में अरब यात्री अबू रैहान अलबरूनी ने की और उन्होंने संस्कृत में एस्ट्रोलेब के बारे में बताने के लिए एक कविता भी लिखी। बरूनी अपने दौर के अंतरिक्ष विज्ञान के एक बड़े माहिर थे। उन्होंने संस्कृत सीखी और भारतीय उपमहाद्वीप में उस वक़्त के समाज पर अपनी तस्नीफ ‘किताबुलहिंद’ में बहुत कुछ लिखा।
चौदहवीं सदी के आख़िरी हिस्से (1351-1388) में दिल्ली पर फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ की हुकूमत थी। उनके दौर में साइंस के मैदान में बहुत काम हुआ। इस काम में उनके ब्राह्मण वज़ीर का भी एक अहम रोल था जो बाद में मुसलमान हो गये और उन्होंने दिल्ली में कलां मस्जिद के नाम से सात मस्जिदें भी बनवाईं। फ़िरोज़ शाह ने दूसरी किताबों के साथ-साथ एस्ट्रोनोमी से जुड़ी कई अरबी और दूसरी किताबों को जमा किया और उन्हें अपने साइंसदान महेन्द्र सूरी को समझने और तरजुमे के लिए दीं। महेन्द्र सूरी जैन धर्म को मानते थे। फ़िरोज़ शाह की हिदायत पर उन्होंने एस्ट्रोलेब पर एक मेनुअल फारसी में तैयार किया और संस्कृत में ‘यंत्रराज’ के नाम से एक किताब लिखी जिसने अंतरिक्ष विज्ञान में दिलचस्पी को दूर दूर तक फैलाया। फ़िरोज़ शाह का बनाया हुआ अनोखा एस्ट्रोलेब एक ज़माने तक दिल्ली में आज के फ़िरोज़ शाह कोटला में लोगों को सितारों से जोड़ने का काम करता रहा।
दूसरी सदी के मिस्री-यूनानी एस्ट्रोनोमर क्लाडियस टोलेमी की ग्रीक में लिखी 150 ईस्वी की किताब (Mathematike Syntaxis) के अलग-अलग दौर में पांच अरबी तरजुमे हुए। इसी किताब की मालूमात को आगे बढ़ाया कई अरब साइंसदानों ने जिनमें अब्दुल रहमान अलसूफी की किताब The Book of Fixed Stars ने एक अर्से तक दिल्ली से लेकर युरोप तक के कई ज्ञान-विज्ञान केंद्रों को एस्ट्रोनोमी से जोड़ा। अलबरूनी और फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने इसी काम को इस उपमहाद्वीप में किया जो मुग़ल दौर तक जारी रहा। इन पांच अरबी अनुवादों में से एक सवाई मानसिंह द्वितीय के वक़्त से जयपुर म्यूज़ियम में मौजूद है और भारत में जंतरमंतरों की तामीर में उससे फायदा हासिल किया गया।
दूसरी तरफ स्पेन के रास्ते अरबी-फारसी में साइंस का ख़ज़ाना यूरोप पहुंचना शुरू हुआ। दूसरी किताबों के साथ-साथ, टोलमी की किताब ‘अलमिजिस्टी’ के अरबी तरजुमों और अलसूफी जैसे साइंसदानों की किताबों के लैटिन और दूसरी ज़बानों में तरजुमे हुए। स्पेन के अनुवादक क्रीमोना के रहने वाले गेरार्ड ने 1175 में अलमिजिस्टी को लैटिन में तरजुमा करके इसे दोबारा युरोप तक पहुंचाया। यूनान से चले एस्ट्रोलेब को बग़दाद से लेकर दिल्ली तक काफी तरक़्क़ी हासिल हुई। और आज हम रूस और अमेरिका की लीडरशिप में एस्ट्रोनोमी के मैदान में और आगे बढ़ रहे हैं। यहां तक कि जेम्सवेब स्पेस लेब से ब्रह्माण्ड के हर कोने में ताक-झांक कर रहे हैं। इस लैब पर काम करने वाले एक्सपर्ट्स दुनिया के कई देशों से संबंध रखते हैं।
इस एक मिसाल से हम समझ सकते हैं कि सभ्यता का चक्र देशकाल से ऊपर है। इसमें न किसी के लिए अहंकार के लिए मौक़ा है और न ख़ुद-बड़ाई का। यह तो एक आसमानी नेअमत है, जो इसके लायक़ होता है उसे मिलती है। अब हम चाहें तो इस सच्चाई को मान लें या आत्म-मुग्ध हो कर असभ्यता के दलदल में फंस जाएं।