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हिन्दू शायरों ने भी बेशुमार नात और मरसिया लिखे

रईस खान
किसी
ने कहा कि तमाम मुसलमान शायरों ने कृष्ण और राम की शान में गीत, छंद, दोहे, शेर, नज़्म, और क़सीदे लिखे मगर ये कैसी गंगा जमुनी तहज़ीब है कि बदले में किसी हिंदू की शायरी में मुहम्मद (सअ) का नाम तक नहीं आता।

इसे नादानी कहा जाए या कम-इल्मी ? शायद इसे मज़हब और फिरक़ों की दीवार के साए में पले कूप मंडूक कह सकते हैं जो दूसरों से आश्ना नहीं होने देते। ऐसे तमाम हिंदू शायर हुए हैं जिन्होंने बाक़ायदा नात, सलाम, मरसिया, मनक़बत, मुसद्दस, और नौहे न सिर्फ लिखे हैं बल्कि तमाम मंचों पर दिलेरी के साथ पढ़े भी हैं। हम महेंद्र सिंह अश्क, भुवनेश अमरोहवी, मासूम टंडन, गुलज़ार देहलवी जैसे शायरों को सुनकर बड़े हुए हैं। छुन्नू लाल दिलगीर, सरोजिनी नायडू, प्रोफेसर जगन्नथ आज़ाद जैसे तमाम नाम हैं जो ज़हन से जाते ही नहीं। मुसलमानों में अक्सरीयत ने शायद यह नाम न सुने हों क्योंकि जिस साझा विरासत के चबूतरे पर यह शोअरा अपने कलाम पढ़ते हैं उनपर मौलवी साहब बिदअत, और शिर्क के फतवे लगाए बैठे हैं। इधर वालों को संघियों से हल्का समझने की भूल करना भी गुनाह है, वरना दर्जनों हिंदू शायर हम जानते हैं जो नाते मुहम्मद (सअ) भी कहते हैं और नबी के नवासों का मरसिया भी पढ़ते हैं। फिलहाल हिंदू शायरों के कुछ शेर आपकी समाअतों की नज़्र…

हामिल ए जलवा ए अजल, पैकर ए नूर ए ज़ात तू
शान ए पयंबरी से है, सरवर ए कायनात तू
-बालमुकुंद अर्श

आदमीयत का गर्ज़ सामान मुहैया कर दिया
एक अरब ने आदमी का बोलबाला कर दिया
-हरीचंद अख़्तर

सलाम उस ज़ात ए अक़्दस पर, सलाम उस फख़्र ए दौरां पर
हज़ारों जिसके अहसानात हैं दुनिया ए इमकां पर
-प्रोफेसर जगन्नाथ आज़ाद

नहीं ज़िक्र ए मुहम्मद (सअ) के लिए तख़सीस मज़हब की
ये किसने कह दिया ये सिर्फ मुस्लिम की ज़बां तक है
-चंद्र प्रकाश जौहर

काफिर न कहो शाद को, है आरफी ओ सूफी
शैदा ए मुहम्मद (सअ) है वो, शैदा ए मदीना
-किशन प्रसाद शाद

मालूम है कुछ तुम को मुहम्मद का मक़ाम
वो उम्मत ए इस्लाम में महदूद नहीं
-फिराक़ गोरखपुरी

दैर से नूर चला और हरम तक पहुंचा
सिलसिला मेरे गुनाहों का करम तक पहुंचा
तेरी मेराज मुहम्मद (सअ) तो ख़ुदा ही जाने
मेरी मेराज के मैं तेरे हरम तक पहुंचा
-कृष्ण बिहारी नूर

बुतों को छोड़ा तो फ़रज़ंदे बूतुराब मिला
जो घर को छोड़ा तो ख़ुल्दे बरीं का बाब मिला
किया जो कायापलट रूप ने ब-फ़ज़ल-ए-रसूल
कनीज़ फ़ातिमा ज़ेहरा इसे ख़िताब मिला
-रूप कुमारी

ख़ुमार शाने करीमी की तुझपे बरकत है
अक़ीदतों से मुरस्सा कलाम है तेरा
-सतनाम सिंह ख़ुमार

हुसैन लश्करे बातिल का ग़म नहीं करता
हुसैन अज़्म है माथे को ख़म नहीं करता
-दर्शन सिंह दुग्गल

अश्नान करके आया है संगम पे बरहमन
और ख़ाके कर्बला का तिलक लाजवाब है
जावेद मदह ख़्वाह है तेरा बिंते मुर्तज़ा
ये बरहमन इसीलिए इज़्ज़त मआब है
-प्रोफेसर वशिष्ठ ‘जावेद’

कहां यज़ीद कहां अज़मते हुसैनियत
कोई जफ़ा के लिए था, कोई वफ़ा के लिए
कोई है नूर का मरकज़, कोई है शोला-ए-नार
किसे चुनेंगे मुसलमान रहनुमा के लिए
-विश्वनाथ प्रसाद माथुर

सीने पे था चढ़ा हुआ जब क़ातिले लईं
आवाज़े दर्दनाक में कहते थे शाहे दीं
इय्या का नआबदो कभी इय्या का नस्तईं
-दल्लू राम कौसरी

मख़सूस ना महकूम ना सरवर के लिए है
मसरूर ना मजबूर ना मुज़तर के लिए है
तख़सीस ना हिंदू की ना मुस्लिम की है इसमें
शब्बीर का पैग़ाम जहां भर के लिए है
-लाला दिगंबर प्रसाद गौहर

ख़ुल्द उसकी है, ख़ैबां उसका, कौसर उसका है
जिसको उल्फत है विलायत आले पयंबर के साथ
-गौहर प्रसाद विलायत गोरखपुरी

अल्लाह रे तश्निगी मेरे ज़ौक़े सफ़ात की
गंगा से हमकिनार हैं मौजें फ़ुरात की
-नत्थू लाल

पहले मुस्लिम को किया क़त्ल मुसलमानों ने
हाय किया ज़ुल्म किया जान के नादानों ने
घर को बरबाद किया घर कि निगहबानों ने
क़ाफ़िला लूट लिया मिलके हदी ख़्वानों ने
कमर अब टूट गई शाह की ताक़त ना रही
जब हरावल ना रहा फ़ौज की शौकत ना रही
-महाराजा किशन प्रसाद

पेश करता हूं कुछ नज़रे अक़ीदत हर साल
ताकि इससे मेरे आमाल में तनवीर आये
परस्तिश रवा नहीं है मोमनीन को
मुझे ये हक़ कि पूजता हूं दीदा-ए-पुरआब से
-अमन लखनवी

जब से आने को कहा था कर्बला से हिंद में
हो गया इस रोज़ से हिंदोस्तां शब्बीर का
-विश्वनाथ माथुर

इनके ख़ेमे भी लगे गंगा किनारे होते
इनके घोड़ों को भी जल इसका पिलाते हिंदू
जंग करने यहां शब्बीर से आता जो यज़ीद
इसको रावन की तरह धूल चटाते हिंदू
-भुवनेश अमरोहवी

करबला में एक बहाना थे हुसैन इब्ने अली
लेने वाले ने लिया था इम्तहान ए मुस्तफा (सअ)
-राम बिहारी लाल सबा

ऐ दौर-ए-मुख़ालिफ होश में आ, हमको डराना चाहता है
हम वो सर हैं जो नेज़ों पर, क़ुरआं सुनाया करते हैं
-महेंद्र सिंह अश्क

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